Saturday, 4 April 2020

चल पड़ा ए मुसाफिर,

आंखो से सपने चुराकर
वक़्त को हाथ में लेकर,
चल पड़ा ए मुसाफिर,
एक नई दिशा पर।

रास्ते का पता नहीं,
मंजिल से जुदा सही,
चल पड़ा ए मुसाफिर, 
ज़माने से खुद को बचाकर।

घर से दूर भी सुकून हैं,
इस एहसास के भी कई रूप हैं,
चल पड़ा ए मुसाफिर,
पिंजरे से खुद को छूड़ा कर।

परिस्थितियों से डर कर,
अपने को बचा कर,
चल पड़ा ए मुसाफिर,
दिक्कतों से दूर, स्वार्थी बनकर।

वापिस आने का डर हैं,
खुद से हार जाने का मन हैं,
कहता है मुसाफिर,
आज रुक जाने का मन हैं ।



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