Wednesday, 12 February 2020

क्या पता?

शायद ये समाज के दायरे है,
या फिर तेरी बेबसी,
या परिवार का भोज,
जो तू आज तक सेह रही हैं।
शायद तुझे उसी वक़्त आवाज़ उठानी थी,
तुझे अपने हक के लिए लड़ना था,
पर तुझे सेहम के नहीं रहना था।
ये दाग के साथ तुझे अब जीना हैं,
दाग़ देने वाले के साथ एक छठ के भीतर रहना है।
शायद तू ये सब भूल भी जाती,
पर रोज उसे देख कर तू कैसे  हैं जीती?
ये सब में तब नहीं समझ पाई,
पर अब लगता है तूने जो सहा हैं, वो शायद कोई ना सेहता।
लेकिन तुझे आवाज़ उठानी थी,
अपने स्वाभिमान के लिए उठानी थी।
पर क्या पता बच्चे तेरी खामोशी का राज होंगे,
क्या पता वही तेरे इस बदलाव का कारण होंगे।
पर तुझे बोलना था,
ये समाज से लड़ना था,
परिवार की दीवार को तोड़ना था,
हर चीज को माफ नहीं किया जाता।
क्या पता ये जंग तभी ख़तम हो जाती,
क्या पता तब तू खुल के जी पाती,
क्या पता तब मैं भी सुकून से रह पाती। 

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