Saturday, 26 December 2020

दादी के राम

 दादी की कहानियों में,

दादी के हर गाने में,

बस था एक ही नाम,

वो था राम।


जब वक़्त नहीं कटता था,

तो कलम उठा कर लिखती थी,

और राम नाम से पूरा पन्ना भर्ती थी


एक छोटे से मंदिर में राम का पोस्टर चिपका कर,

मन ही मन रोज़ कुछ मांगती थी,

अगर इच्छा ना हो पूरी तो मुंह नहीं फेरती थी,

दोबारा वहीं जाके राम नाम जप्ती थी।


जब मंदिर बड़ा हुआ तो भगवान का जैसे सैलाब अगया,

पर राम नाम तब भी सबसे पहले जुबां पर आया। 


और आज जब मंदिर वहीं बन गया है,

तो टीवी देख कर हाथ जोड़ती है।


बोलती है मन में हो राम तो कुछ नहीं चाहिए,

मंदिर जितना बड़ा करलो, भेद नहीं होना चाहिए।


कहानियों के राम को आज में ढूंढती हूं,

जब दिखते नहीं है लोगो में,

तो खुद से प्रशन करती हूं,

क्या कहानी तक सीमित है राम,

या असल ज़िन्दगी में भी होते हैं राम।


बचपन की मासूमियत कुछ ज्यादा ही सीखा गई,

राम नाम को बस मन में ही बसा गई।


लोगो की इज्जत करने से खुश होते हैं राम,

गलती मानकर सुधारने से खुश होते हैं राम,

इंसानियत का नाम है राम,

ये था दादी की कहानी का सार। 


तो मंदिर के जशन में ये मत भूलना,

शबरी के झुठे बेर खाने वाले थे राम,

दूसरों के दुख को समझने वाले थे राम,

गलती भी करने वाले थे राम,

ऐसे थे त्रेतायुग के राम,

कलयुग में बाद रह गया है उनका नाम। 




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